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बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 ( The Prohibition of Child Marriage Act ) – एक परिचय

परिचय

भारत में बाल विवाह एक गंभीर सामाजिक समस्या रही है, जो बच्चों के अधिकारों, उनके स्वास्थ्य और शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। इस प्रथा को रोकने के लिए सरकार ने “बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006” (Prohibition of Child Marriage Act, 2006 – PCMA) लागू किया, जो बाल विवाह को अपराध घोषित करता है और इसके लिए सख्त दंड का प्रावधान करता है। यह अधिनियम 1929 के बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम (Child Marriage Restraint Act, 1929) को हटाकर इसे और अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से लाया गया था।

बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 क्या है?

यह अधिनियम भारत में बाल विवाह को प्रतिबंधित करने वाला एक व्यापक कानून है, जो न केवल बाल विवाह को अवैध घोषित करता है, बल्कि दोषियों के खिलाफ कड़ी सजा का भी प्रावधान करता है। इसके तहत:

  • 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की और 21 वर्ष से कम उम्र के लड़के का विवाह अवैध माना जाता है।
  • ऐसे विवाह को शून्यकरणीय (Voidable) या पूर्ण रूप से अमान्य (Void) घोषित किया जा सकता है।
  • बाल विवाह को बढ़ावा देने, आयोजित करने या समर्थन करने वालों को सजा दी जाती है।
  • बाल विवाह निषेध अधिकारी (Child Marriage Prohibition Officer) को इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी दी गई है।

बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की आवश्यकता क्यों पड़ी?

भारत में बाल विवाह की परंपरा सामाजिक और आर्थिक कारणों से वर्षों से चली आ रही है। इसके मुख्य कारण हैं:

  • लैंगिक भेदभाव – बेटियों को आर्थिक बोझ समझा जाता है।
  • गरीबी और अशिक्षा – आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण माता-पिता जल्दी शादी कर देते हैं।
  • सामाजिक परंपराएँ – कई समुदायों में यह अब भी मान्य प्रथा है।
  • सुरक्षा की भावना – माता-पिता अपनी बेटियों को सामाजिक कुरीतियों से बचाने के लिए कम उम्र में शादी कर देते हैं।

इस कानून के प्रभाव

  • बाल विवाह की घटनाओं में कमी आई है।
  • बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा मिला है।
  • किशोरियों के स्वास्थ्य और अधिकारों की सुरक्षा हुई है।
  • सामाजिक जागरूकता बढ़ी है, जिससे लोग इस कानून की जानकारी लेकर बाल विवाह का विरोध कर रहे हैं।

निष्कर्ष

बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भारत में एक महत्वपूर्ण कानून है, जो बच्चों को उनके अधिकार दिलाने और उनके भविष्य को सुरक्षित करने में सहायक साबित हो रहा है। हालांकि, केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है, इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सामाजिक जागरूकता, शिक्षा और सशक्तिकरण भी आवश्यक है।



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