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हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 – धारा 10: न्यायिक पृथक्करण

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 – धारा 10: न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation)

भूमिका:

धारा 10 (Section 10) न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) से संबंधित है। यदि पति या पत्नी में से कोई एक विवाह के दायित्वों को निभाने में असमर्थ हो या शादीशुदा जीवन को जारी रखना मुश्किल हो, तो वे अदालत में न्यायिक पृथक्करण की याचिका दायर कर सकते हैं।

न्यायिक पृथक्करण का मतलब यह होता है कि पति-पत्नी अभी भी कानूनी रूप से विवाहित होते हैं, लेकिन वे अलग रहने के लिए स्वतंत्र होते हैं।


धारा 10 के प्रमुख प्रावधान:

  1. न्यायिक पृथक्करण का अर्थ:
    • यदि अदालत न्यायिक पृथक्करण का आदेश देती है, तो पति-पत्नी को साथ रहने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं होती।
    • लेकिन विवाह खत्म नहीं होता; यानी वे कानूनी रूप से पति-पत्नी बने रहते हैं।
  2. कौन न्यायिक पृथक्करण की मांग कर सकता है?
    • पति या पत्नी में से कोई भी अपने जीवनसाथी के खिलाफ फैमिली कोर्ट या सिविल कोर्ट में धारा 10 के तहत याचिका दायर कर सकता है।
  3. न्यायिक पृथक्करण के आधार (Grounds for Judicial Separation):
    हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार, निम्नलिखित आधारों पर न्यायिक पृथक्करण की मांग की जा सकती है— (क) पति और पत्नी दोनों के लिए:
    • व्यभिचार (Adultery): यदि कोई जीवनसाथी विवाह के दौरान किसी अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बनाता है।
    • क्रूरता (Cruelty): यदि पति या पत्नी एक-दूसरे के प्रति हिंसक, अपमानजनक, या मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं।
    • परित्याग (Desertion): यदि कोई जीवनसाथी बिना उचित कारण के 2 साल से अधिक समय तक छोड़कर चला गया हो।
    • धर्म परिवर्तन (Conversion): यदि कोई जीवनसाथी हिंदू धर्म छोड़कर किसी अन्य धर्म को अपना ले।
    • मानसिक विकार (Mental Disorder): यदि किसी जीवनसाथी को गंभीर मानसिक बीमारी हो और उसके साथ जीवन बिताना असंभव हो जाए।
    • कुष्ठ रोग (Leprosy): यदि कोई जीवनसाथी लाइलाज कुष्ठ रोग से पीड़ित हो।
    • संन्यास लेना (Renunciation of the world): यदि कोई व्यक्ति संन्यासी बनकर संसार का त्याग कर दे।
    • मृत्यु का समाचार न मिलना (Presumed Death): यदि पति या पत्नी पिछले 7 वर्षों से लापता हो और जीवित होने का कोई प्रमाण न मिले।
    (ख) केवल पत्नी के लिए अतिरिक्त आधार:
    • यदि पति ने किसी अन्य महिला से पहले से शादी कर रखी हो।
    • यदि पति ने पत्नी के साथ बलात्कार (Rape) या अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए हों।
    • यदि शादी के समय पत्नी 18 वर्ष से कम उम्र की थी और शादी के बाद उसने इसे अस्वीकार कर दिया हो।
  4. न्यायिक पृथक्करण और तलाक में अंतर:
    | बिंदु | न्यायिक पृथक्करण | तलाक |
    |——–|——————|——-|
    | वैवाहिक स्थिति | विवाह बना रहता है | विवाह समाप्त हो जाता है |
    | साथ रहने की बाध्यता | नहीं | नहीं |
    | पुनर्विवाह (Remarriage) | नहीं कर सकते | कर सकते हैं |
    | सुलह (Reconciliation) | अगर दोनों चाहें, तो दोबारा साथ रह सकते हैं | दोबारा शादी करनी होगी |
  5. न्यायिक पृथक्करण के बाद क्या होता है?
    • अगर पति-पत्नी सुलह कर लेते हैं, तो वे फिर से साथ रह सकते हैं।
    • यदि न्यायिक पृथक्करण के आदेश के 1 साल बाद भी वे अलग रहते हैं, तो वे तलाक के लिए याचिका दायर कर सकते हैं।

धारा 10 का उद्देश्य:

  • पति-पत्नी को एक मौका देना कि वे बिना तलाक लिए अलग रह सकें।
  • उन्हें यह सोचने का समय मिल सके कि वे शादी जारी रखना चाहते हैं या नहीं।
  • यदि जीवनसाथी पर अत्याचार हो रहा हो, तो उसे राहत प्रदान करना।

निष्कर्ष:

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 10 एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो पति-पत्नी को बिना तलाक लिए अलग रहने की कानूनी अनुमति देता है। यह तलाक से पहले एक समय देने वाला कदम है, जिससे पति-पत्नी को अपना रिश्ता सुधारने या अंतिम निर्णय लेने का अवसर मिलता है।

हालांकि, अगर न्यायिक पृथक्करण के बाद भी पति-पत्नी में सुलह नहीं होती, तो वे 1 साल बाद तलाक के लिए आवेदन कर सकते हैं।


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