हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 – धारा 23: राहत देने में न्यायालय के दिशा-निर्देश (Decree in Proceedings)
परिचय:
धारा 23 यह निर्धारित करती है कि जब कोई व्यक्ति हिंदू विवाह अधिनियम के तहत किसी प्रकार की राहत (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण, विवाह रद्दीकरण) के लिए अदालत में याचिका दायर करता है, तो अदालत को किन परिस्थितियों में और किन शर्तों के तहत राहत प्रदान करनी चाहिए।
इस धारा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल न्यायोचित और सही कारणों के आधार पर ही याचिकाकर्ता को राहत दी जाए और कोई भी व्यक्ति कानून का दुरुपयोग न कर सके।
धारा 23 के प्रमुख प्रावधान:
1. न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि याचिकाकर्ता स्वयं दोषी न हो (No Petitioner Should Be at Fault)
✅ यदि कोई व्यक्ति अदालत में विवाह रद्द करने, तलाक लेने, या न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर करता है, तो अदालत पहले यह जांचेगी कि याचिकाकर्ता स्वयं इस स्थिति के लिए दोषी तो नहीं है।
✅ यदि याचिकाकर्ता स्वयं विवाह की विफलता के लिए ज़िम्मेदार पाया जाता है, तो उसे राहत नहीं दी जाएगी।
उदाहरण: यदि एक पति तलाक की मांग कर रहा है, लेकिन यह साबित हो जाता है कि उसने ही पत्नी को छोड़ दिया था या उसके साथ दुर्व्यवहार किया था, तो अदालत तलाक की मांग खारिज कर सकती है।
2. कानून का दुरुपयोग न हो (No Collusion Between the Parties)
✅ यदि अदालत को संदेह होता है कि पति-पत्नी ने मिलकर तलाक लेने के लिए गलत जानकारी दी है (Collusion), तो वह तलाक देने से इनकार कर सकती है।
✅ अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि कोई भी व्यक्ति झूठे आधार पर विवाह को अमान्य या रद्द न करा सके।
उदाहरण: यदि पति-पत्नी केवल दिखावे के लिए तलाक लेने की योजना बना रहे हैं ताकि वे किसी अन्य मकसद को पूरा कर सकें, तो अदालत तलाक को मंजूरी नहीं देगी।
3. अन्य पक्ष को अनुचित रूप से नुकसान न हो (No Unfair Advantage to Any Party)
✅ अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि किसी भी पक्ष को अनुचित नुकसान या अन्याय न हो।
✅ यदि तलाक या विवाह रद्दीकरण के आदेश से किसी पक्ष को अन्याय या भारी नुकसान होगा, तो अदालत याचिका को अस्वीकार कर सकती है।
उदाहरण: यदि पत्नी आर्थिक रूप से निर्भर है और पति बिना उचित प्रावधान किए तलाक लेना चाहता है, तो अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि पत्नी को उचित भरण-पोषण मिले।
4. वैधानिक शर्तों का पालन किया गया हो (Compliance with Legal Conditions)
✅ अदालत तभी तलाक या विवाह रद्दीकरण की अनुमति देगी, जब यह साबित हो जाए कि याचिकाकर्ता ने सभी वैधानिक आवश्यकताओं का पालन किया है।
✅ अदालत मामले की गहराई से जांच करेगी और फिर उचित निर्णय देगी।
उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति तलाक की मांग करता है, लेकिन उसने विवाह अधिनियम की शर्तों का पालन नहीं किया, तो अदालत उसकी याचिका खारिज कर सकती है।
5. यदि संभव हो, तो सुलह की कोशिश की जाए (Court to Try for Reconciliation)
✅ यदि अदालत को लगता है कि पति-पत्नी के बीच सुलह (Reconciliation) हो सकती है, तो वह उन्हें पहले समझौता करने का अवसर दे सकती है।
✅ यदि सुलह असफल होती है और विवाह बचाने की कोई संभावना नहीं रहती, तब अदालत आगे की कार्यवाही करेगी।
उदाहरण: यदि पति-पत्नी आपसी गलतफहमियों के कारण तलाक की याचिका दायर करते हैं, लेकिन अदालत को लगता है कि बातचीत से मामला सुलझ सकता है, तो अदालत उन्हें मध्यस्थता (Mediation) का सुझाव दे सकती है।
6. निष्पक्ष और न्यायसंगत निर्णय (Court to Ensure Justice and Fairness)
✅ अदालत का कर्तव्य है कि वह किसी भी पक्ष के साथ अन्याय न होने दे और सिर्फ कानूनी आधार पर ही निर्णय दे।
✅ यदि अदालत को लगता है कि तलाक, विवाह रद्दीकरण, या न्यायिक पृथक्करण देने से किसी भी पक्ष को अनुचित नुकसान होगा, तो वह याचिका अस्वीकार कर सकती है।
निष्कर्ष:
धारा 23 यह सुनिश्चित करती है कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत दी जाने वाली किसी भी राहत को उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत तरीके से प्रदान किया जाए।
✅ अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि याचिकाकर्ता स्वयं दोषी न हो।
✅ अदालत यह देखेगी कि तलाक या विवाह रद्दीकरण किसी धोखाधड़ी या मिलीभगत (Collusion) का परिणाम न हो।
✅ यदि संभव हो, तो अदालत पति-पत्नी के बीच समझौता कराने का प्रयास करेगी।
✅ यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी भी पक्ष को अनुचित लाभ या नुकसान न हो।
इस धारा का मुख्य उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी, निष्पक्ष और दुरुपयोग से मुक्त बनाना है।
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